अयोध्या में आखिरकार राम मंदिर का सपना पूरा होने जा रहा है और 22 जनवरी को राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा होगी. हालांकि राम मंदिर के लिए आंदोलन लंबे समय तक चला और इसकी कामयाबी में कई लोगों का अपार सहयोग भी रहा. इन्हीं में एक नाम है महंत अवेद्यनाथ का. अयोध्या आंदोलन में निडरता और धैर्य की प्रतिमूर्ति थे गोरखपुर की गोरक्षपीठ के महंत अवेद्यनाथ. आखिर ऐसा क्यों था… क्यों वो बेहद निडर थे और क्यों अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए सत्ताधीशों से टकराने से भी उन्हें गुरेज नहीं था. जिस वक्त बाबरी ढांचा की नियति तय होने वाली थी… उस वक्त महंत अवेद्यनाथ ढांचे से करीब 150 मीटर दूर मौजूद थे.
6 दिसंबर 1992 को विवादित परिसर के इर्द-गिर्द कारसेवकों का भारी हुजूम था. हर ओर शोर-शराबा और जोरदार नारेबाजी हो रही थी, जिसकी गूंज हर ओर सुनाई दे रही थी. विवादित परिसर के चबूतरे पर महंत अवेद्यनाथ की अगुवाई में पूजा हुई. पूजा करीब एक घंटे तक चली. इसके बाद जो कुछ हुआ, वो इतिहास बन गया. ऐसा क्यों हुआ. उसकी बानगी है कारसेवकों और रामभक्तों का ये गुस्सा.
‘ये हमारे माथे पर कलंक’
राम मंदिर आंदोलन में कारसेवकों का उत्साह बना हुआ था. उनका कहना था, 462 साल पहले अगर एक लुटेरे ने आकर हमारे राम मंदिर को ध्वस्त किया है, तो ये हमारे माथे पर कलंक है. ये गुलामी का चिन्ह है, हम इसे खत्म करके रहेंगे… चाहे खून से करें चाहे गोलियों से करें. सबसे पहले हिंदू, उसके पीछे जाति. एक कारसेवक ने कहा, “अरे बाबर कौन था… घुसपैठिया था… अकबर कौन था, घुसपैठिया था… तो हमें बाबर को नहीं मानना है, हमें राम को मानना है.” आंदोलन के अगुवा नेताओं में शामिल लाल कृष्ण आडवाणी ने भी कहा कि मंदिर वहीं बनाएंगे. उसको कौन रोकेगा.
1990 के दशक की शुरुआत में देश में सड़कों पर गूंजती इस हुंकार से करीब 6 साल पहले अयोध्या के वाल्मीकि भवन में सन्नाटा छाया हुआ था. विश्व हिंदू परिषद ने तब तक राम मंदिर आंदोलन की रूपरेखा बना ली थी. आंदोलन के लिए श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनाने का फैसला हो चुका था. वाल्मीकि भवन में 21 जुलाई 1984 को साधु-संतों की बैठक में तय होना था कि श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष कौन होगा..?
इस बारे में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के संस्थापक सदस्य रामविलास वेदांती बताते हैं, “उस बैठक में अशोक सिंघल चाहते थे कि अयोध्या का ही कोई महंत यज्ञ समिति का अध्यक्ष बने. लेकिन कांग्रेस की सरकार थी, अयोध्या के सभी महंतों ने संतों ने कांग्रेस के डर के मारे मना कर दिया. उन लोगों का मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा.” विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया ने कहा कि अगर कोई भी मुक्ति यज्ञ समिति का कोई नेतृत्व लेने के लिए तैयार नहीं था, तब उन्होंने कहा कि मैं नेतृत्व करुंगा.
अवेद्यनाथ ने संभाली आंदोलन की बागडोर
दूसरी ओर, अयोध्या के साधु-संतों को भय था कि अगर उन्होंने राम मंदिर आंदोलन की बागडोर संभाली, तो केंद्र और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार उनके मठ और मंदिर छीन लेगी. उन्हें निर्भय करने के लिए सामने आए गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ. रामविलास वेदांती बताते हैं, “अयोध्या के संत और महंत लोग कांग्रेस सरकार से डर गए थे कि हमारे मंदिर का अधिग्रहण हो जाएगा. इसी कारण से अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं किया. मैं इतना योग्य नहीं था. कम अवस्था थी, लेकिन अयोध्या के वृद्ध पूज्य संत सरकार के डर के मारे इस पद को स्वीकार नहीं किया, लेकिन महंत अवेद्यनाथ ने कहा कि हमको डर नहीं है.”
जिस भय से अयोध्या के साधु-संत घिरे हुए थे, महंत अवेद्यनाथ बचपन में ही उससे मुक्त हो चुके थे. 18 मई 1919 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में कांडी गांव में जन्मे महंत अवेद्यनाथ का जन्म नाम था – कृपाल सिंह बिष्ट. वो अभी बालक ही थे कि उनके माता-पिता का निधन हो गया. जिस दादी ने उन्हें पाला, वो भी कृपाल सिंह बिष्ट को किशोरावस्था में ही छोड़ कर स्वर्ग सिधार गईं.
इस मृत्यु ने सांसारिक रिश्तों से मोहभंग कराया, तो कृपाल सिंह बिष्ट संन्यास की राह पर निकल पड़े. ऋषिकेश में साधु-संतों की संगत में धर्म-अध्यात्म का अध्ययन और चिंतन करने लगे. कभी ऋषिकेश… तो कभी काशी… आध्यात्मिक संसार में मन इतना रमा कि उन्होंने सांसारिक मायाजाल को तोड़ने के लिए आखिरी बार अपने पुश्तैनी गांव जाने का निर्णय लिया. कृपाल सिंह बिष्ट अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे. उनके पिता के दो भाई और थे. गांव जाकर उन्होंने अपने हिस्से की सारी संपत्ति अपने दोनों चाचा को बांट दी.
ठुकरा थी दिग्विजय नाथ की पेशकश
साल 1940 में संन्यासी कृपाल सिंह बिष्ट गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात तत्कालीन महंत दिग्विजय नाथ से हुई. दिग्विजय नाथ उदयपुर के उसी राणा परिवार से आए थे, जिसमें बप्पा रावल और महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था. उनके बचपन का नाम राणा नान्हू सिंह था और उनका जन्म उदयपुर के कंकरवा टिकाना गांव में हुआ. राजनीतिक सूझ-बूझ में माहिर महंत दिग्विजय नाथ लंबे और चौड़े कंधे वाले व्यक्ति थे. वे बोलचाल का सलीका जानते थे और लॉन टेनिस में माहिर थे.
सात साल की उम्र में साजिश के तहत उनके चाचा ने उन्हें नाथपंथ के योगी फूलनाथ को सौंप दिया, जो उन्हें गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में ले आए. पहली ही मुलाकात में महंत दिग्विजय नाथ ने कृपाल सिंह को दीक्षा देकर अपना उत्तराधिकारी बनाने की पेशकश की, लेकिन ब्रह्मचारी संन्यासी कृपाल सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि नाथ पंथ के बारे में वो खुद को तब अल्पज्ञानी ही मानते थे… गोरखपुर से बंगाल और बंगाल से कराची… वो धर्म, अध्यात्म और दर्शन के लिए ऐसे भी यात्राएं करते रहे.
योगी शांतिनाथ ने दी अवेद्यनाथ को ये सलाह
संन्यासी कृपाल सिंह साल 1942 में ऋषिकेश से कराची पहुंचे. कराची में उन्हें नाथ पंथ के महान योगी शांतिनाथ से मिलना था, जिनकी प्राच्य दर्शन की समीक्षा से वो बहुत प्रभावित थे. कराची में ही योगी शांतिनाथ ने संन्यासी कृपाल सिंह बिष्ट को गोरखपुर जाकर महंत दिग्विजय नाथ से दीक्षा लेने को कहा. संन्यासी कृपाल ने उन्हें बताया कि महंत दिग्विजय नाथ का प्रस्ताव वो दो साल पहले ही ठुकरा आए थे. अब क्या पता कि महंत दिग्विजय नाथ ने किसी और को अपना उत्तराधिकारी बना लिया हो..?
उनके इस संदेह के बाद भी योगी शांतिनाथ ने महंत दिग्विजय नाथ को पत्र लिखा, तो जवाब में महंत दिग्विजयनाथ ने किराए के पैसे भेजते हुए संन्यासी कृपाल को गोरखनाथ मंदिर बुलाया… 8 फरवरी 1942 को महंत दिग्विजयनाथ ने विधिवत दीक्षा देकर उन्हें अपना शिष्य और उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और उसी दिन से ब्रह्मचारी संन्यासी कृपाल सिंह बिष्ट बन गए- नाथ पंथ के साधक… अवेद्यनाथ… यहां ये बताना जरुरी है कि करीब 7 बरस बाद 22-23 दिसंबर 1949 की रात अयोध्या के विवादित ढांचे में रामलला की मूर्ति रखने वाले 5 साधुओं में दिग्विजयनाथ भी शामिल थे. इस तरह गोरक्षपीठ के महंत बनने के साथ अवेद्यनाथ का राम मंदिर आंदोलन के साथ नाता बन गया.
महंत अवेद्यनाथ का श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष बनना भी संयोग नहीं, दैव योग ही था… राम जी की मर्जी…, जिनके जन्मस्थान का गोरक्षपीठ से अटूट नाता रहा है… जन्मभूमि पर बाबरी मस्जिद बनने से भी पहले का नाता.
गोरखनाथ मंदिर के योग शिक्षक योगी सोमनाथ बताते हैं, “राम मंदिर निर्माण के इतिहास में जाएंगे तो पहले मंदिर लव कुश ने बनवाया था. अवंतिका के राजा भतृहरि ने अपना जीवन गोरखनाथ को समर्पित कर दिया, उन्हीं के छोटे भाई विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार कराया. इस पीठ से बाबा ब्रह्मनाथ, बाबा गोपालनाथ, बाबा सुंदरनाथ, बाबा दिग्विजय नाथ, बाबा अवेद्यनाथ और अब योगी आदित्यनाथ.”
पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद कहते हैं, “1949 में 22 दिसंबर की रात को अभिराम दास ने दिग्विजय नाथ की प्रेरणा से रामलला की स्थापना की, उस दिन से ये संघर्ष व्यापक रूप लेता गया.. और फिर इससे जन-जन जुड़ते चले गए.”
श्रीराम जानकी रथयात्रा पहला प्रयोग
श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष के रूप में महंत अवेद्यनाथ का पहला प्रयोग था श्रीराम जानकी रथयात्रा. ये जातियों में बंटे हिंदू समाज को अयोध्या आंदोलन के लिए एकजुट करने का पहला प्रयास था. श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के सदस्य कामेश्वर चौपाल बताते हैं, “पूज्य महंत जी शुरू से हमारे मार्गदर्शक रहे हैं… उन्हीं के मार्गदर्शन में राम जानकी यात्रा निकली थी. उसी यात्रा के क्रम में दिल्ली जाना था, लेकिन इसी वक्त इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी, तब यात्रा रोक दी गई. यात्रा रोकने के बाद एक साल तक कोई कार्यक्रम नहीं हुआ. एक साल बाद राम जानकी रथयात्रा देशभर में निकाली गई. उस यात्रा से जो जागरण पैदा हुआ, उसके कारण से.”
उन्होंने आगे कहा, “पहली यात्रा तो मंदिर का नहीं, जो ताला लगा था, उस ताले को खुलवाने के लिए यात्रा थी. उस ताले को खुलवाने के लिए जो रथयात्रा निकाली गई, उसमें हम लोगों को अयोध्या पहुंचना था. उससे पहले ही राम जन्मभूमि का ताला हटा लिया गया. पूज्य संत महंत अवेद्यनाथ का सफलतम कार्यक्रम था. पहली ही यात्रा में ताले खुल गए थे.”
अयोध्या आंदोलन की ध्वजवाहक श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति ही थी. आंदोलन के लिए हिंदू समाज को संगठित करना था. साधु-संतों को एकजुट रखना था और सत्ता की ताकत से लोहा भी लेना था. इसके लिए महंत अवेद्यनाथ से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था. अवेद्यनाथ के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “अवेद्यनाथ जी के साथ मैं बैठा था. इस परंपरा से निकला संत कहीं से भी, उसकी जानकारी कैसे रखी जाती है, मदद पहुंचाई जाती है. संगठित व्यवस्था के बारे में सुना था. उस परंपरा को आज भी बरकरार रखा.”
पहली ईंट के लिए कामेश्वर चौपाल का नाम
विश्व हिंदू परिषद के पूर्व महामंत्री अशोक सिंघल ने बताया कि पूज्य महंत जी से मेरा संबंध 1950 में जब संघ का प्रचारक होकर आया था, तब दिग्विजयनाथ की सेवा में उपस्थित हुआ था. महंत दिग्विजयनाथ हिंदुओं में शिखर पुरुष, उन्हीं की छत्रछाया में अवेद्यनाथ महाराज ने जो भी शिक्षा ग्रहण की. आज हम बार-बार उनका स्मरण करते हैं.
ये पीठ एक सामान्य पीठ नहीं. अति प्राचीन है. प्राचीनतम हमारे हिंदू परंपरा में नाथ संप्रदाय का. एक समय ऐसा था, जब संपूर्ण भारत नाथ संप्रदाय के लोग रहा करते थे. आज भी बहुत बड़ी संख्या में हैं. असम में चले जाएं, महाराष्ट्र में चले जाएं, कर्नाटक में चले जाएं, राजस्थान तक इस संप्रदाय का बड़ा व्यापक आधार है.
बात अब अयोध्या में राम के जन्मस्थान की. 9 नवंबर 1989 महंत अवेद्यनाथ की अगुवाई में चल रहे राम मंदिर मुक्ति आंदोलन के लिए ये तारीख बेहद खास थी. साधु-संतों और रामभक्तों के दबाव के आगे झुकते हुए केंद्र सरकार ने बाबरी ढांचे के नजदीक राम मंदिर के शिलान्यास की मंजूरी दे दी. महंत अवेद्यनाथ की अगुवाई में देशभर से राम मंदिर के लिए जो ईंटें जुटाई गई थीं, उन ईंटों को महंत अवेद्यनाथ ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर न्यास के अध्यक्ष रामचंद्र दास परमहंस को सौंप दिया. हालांकि राम मंदिर की पहली ईंट रखने के लिए चुना गया दलित समाज के रामभक्त कामेश्वर चौपाल को. इस घटना के बारे में अशोक सिंघल कहते हैं, पूज्य महंत मानते थे कि प्रत्येक प्राणी में आत्मा का निवास है और कोई भी भौतिक सत्ता ऐसी नहीं है जो हमारी आत्मा को मलिन कर सके. कोई भी सत्ता मलिन नहीं कर सकता.
छुआछूत के आंदोलन की वजह से राजनीति से दूरी
श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के सदस्य कामेश्वर चौपाल ने बताया, “इस बारे में जानकारी देने के लिए अशोक सिंघल के दूत बनकर रामेश्वर जी मेरे पास आए थे. वो शिलान्यास का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ.” वह कहते हैं, “जो अहिल्या को अनुभव हुआ, वही अनुभव मुझे हो रहा था. जब राम के स्पर्श से पत्थर बनी अहिल्या दिव्य रूप में खड़ी हो गईं. जहां पैदा हुआ, वहां पत्थर जैसा था, राम का काम हाथ लगा तो सौभाग्य खुलकर सामने आ गया.”
छुआछूत के खिलाफ महंत अवेद्यनाथ का अभियान राम मंदिर आंदोलन के पहले से ही शुरू हो गया था. फरवरी 1981 में तमिलनाडु के कांचीपुरम गांव में दलित परिवारों के इस्लाम कबूल करने के बाद उन्होंने दलित बस्तियों में सहभोज कार्यक्रम शुरू किया, जो मंदिर आंदोलन के दौरान भी जारी रहा. वो 1962 से चुनावी राजनीति में थे, लेकिन दलितों को हिंदुत्व की मुख्यधारा में शामिल करने के अभियान की वजह से उन्होंने चुनाव से भी दूरी बना ली, ताकि कोई ये आरोप न लगाए कि उनका सहभोज कार्यक्रम दलित वोट की खातिर हो रहा है.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह याद करते हुए कहते हैं, “कौन सच्चाई को भूल सकता है कि जिन्हें अछूत कहा जाता था, उन्हें मंदिर में प्रवेश कराने की पहल पूज्य अवेद्यनाथ ने की थी. गोरख पीठ के प्रमुख पुजारी भी दलित समाज से ही आते हैं.” पटना के महावीर मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष और पूर्व आईपीएस किशोर कुणाल कहते हैं, “महंत अवेद्यनाथ से हमारा संपर्क पहले से है. दलित पुजारी की नियुक्ति की थी. तीन संत आए थे. महंत अवेद्यनाथ, परमहंस और पंचगंगा घाट से अवध बिहारी दास. दलित पुजारी का अभिषेक किया था.”
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह बताते हैं, “मुझे याद है कि महावीर मंदिर पटना में भी दलित पुजारी की नियुक्ति कराने का काम पूज्य महंत अवेद्यनाथ ने ही किया था. सामाजिक समरसता के लिए काशी के डोम राजा के घर संतों को भोजन पर ले गए. बहुत संत खिसकने लगे तो उन संतों के घर जाकर मिन्नत करके यह संदेश देने का काम पूज्य महंत अवेद्यनाथ ने किया था.”
सामाजिक सद्भाव के दूत बने अवेद्यनाथ
राम मंदिर आंदोलन के दौरान जब देश में सांप्रदायिकता की राजनीति को हवा दी जा रही थी, तब महंत अवेद्यनाथ सामाजिक सद्भाव के दूत बनकर सामने आए. उनके व्यापक जनाधार का एहसास 6 दिसंबर 1992 को हुआ. श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के संस्थापक सदस्य राम विलास वेदांती ने बताया, “महंत अवेद्यनाथ सुबह 7 बजे हमारे साथ ही पहुंचे थे. वहां स्वामी बामदेव महाराज थे, परमहंस थे, नृत्य गोपाल दास, अशोक सिंघल, ऋतंभरा, उमा भारती. सबके सामने जब पूजन शुरू हुआ, जब संकल्प का नाम आया, तो परमहंस से सिंघल ने परमहंस जी संकल्प को रामकथा मंच से जाकर करें, परमहंस जी ने कहा कि मैं इतनी भीड़ में जा नहीं सकता… तब महंत जी का नाम लिया, लेकिन इतनी भीड़ थी कि सबने मना किया.” उन्होंने कहा, “मैंने नारा लगाया राम नाम सत्य है… ढांचा ध्वस्त है… फोर्स के अधिकारियों ने कहा कि गोली चलाओ, लेकिन किसी पुलिसकर्मी ने गोली नहीं चलाई. पाइप उखाड़ कर हथियार बनाया, उसी के माध्यम से ढांचे पर चढ़े, फिर सब्बल, फावड़े से ढांचे को तोड़ना शुरू किए. हम नारा लगा रहे थे, तभी अशोक सिंघल पहुंच गए. पूज्य महंत अवेद्यनाथ भी पहुंचे. महंत जी ने कहा कि वेदांती ठीक नारा लगा रहा है.
अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद ये सवाल भी उठा कि जब हिंदू साधु-संत इसे राम जन्मभूमि मंदिर मानते हैं, तो उन्होंने जिस ढांचे को ध्वस्त किया, वो क्या था…राम मंदिर या बाबरी मस्जिद…? यही सवाल लिब्रहान आयोग ने भी महंत अवेद्यनाथ से पूछा था, जिसके जवाब में उन्होंने 18 अप्रैल 2002 को लिब्रहान आयोग के समक्ष अपने बयान में कहा, “ढांचा ध्वस्त करने वाले लोग ही इसका जवाब दे सकते हैं, क्योंकि हमारे कार्यक्रम में इसको ध्वस्त करने का प्रोग्राम नहीं था, क्योंकि हम इसको मंदिर ट्रीट करते थे, मंदिर का आदर करते थे…” रामविलास वेदांती कहते हैं, “जो ढांचा था, उसे हम मस्जिद नहीं समझते थे. उसमें मूर्तियां थीं. हिंदू देवी-देवताओं के चिन्ह थे, इसलिए जब ढांचा तोड़ा तो मंदिर को तोड़ा, खंडहर तोड़कर राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ किया.”
विवादित ढांचे के ध्वंस को पूरी दुनिया में बाबरी मस्जिद पर हमले के नाम से ही प्रचारित किया गया. इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में दंगे शुरू हो गए, लेकिन सांप्रदायिक तनाव के उस दौर में भी राम मंदिर आंदोलन के महानायक महंत अवेद्यनाथ की अपनी कर्मभूमि गोरखपुर में शांति थी.
इस मामले पर गोरखपुर के इमामबाड़ा के गद्दीनशीं अदनान फर्रुख अली शाह कहते हैं, “यहां का माहौल. हमेशा आपस में मेलजोल का रहा है. 92 में जब सिलसिला शुरू हुआ तो गोरखपुर में बहुत पीसफुल माहौल था जबकि पूरे हिंदुस्तान में बवाल था. गोरखपुर में नौबत ही नहीं आई. उस जमाने में भी शांतिपूर्वक रहा. यहां एहतियातन कर्फ्यू लगा दिया गया था, जिसकी जरूरत थी ही नहीं. प्रशासन ने भी रियलाइज किया और कर्फ्यू हटा लिया गया. हमारी बॉन्डिंग बहुत थी, इसलिए नौबत नहीं आई. यहां का माहौल हमेशा अच्छा रहता है. चाहे खिचड़ी का मेला हो या मुहर्रम का जुलूस. यहां कोई मसला है ही नहीं.”
देश की एकता और शांति के पक्षधर
योग शिक्षक योगी सोमनाथ कहते हैं, सभी धर्मों के सर्वमान्य धार्मिक गुरु थे, इस पीठ और महंत अवेद्यनाथ के नाते हमेशा से गोरखपुर में शांति का वातावरण रहा. गोरक्ष पीठ कभी अन्याय और शोषण का पक्षधर नहीं रहा. कभी किसी को डराने-धमकाने का काम नहीं किया.
महंत अवेद्यनाथ की पहचान नाथ पंथ के गुरु और हिंदुत्व के पुरोधा के रूप में तो थी ही… वो राष्ट्रीयता के साधक भी थे. देश की एकता और शांति के लिए महंत अवेद्यनाथ किस हद तक जा सकते थे, इसकी मिसाल दुनिया ने देखी. बेहतर वेतन और सुविधाओं की मांग को लेकर पीएसी के जवानों ने विद्रोह कर दिया. आगरा, बरेली और मेरठ से शुरू हुई इस विद्रोह की चिनगारी गोरखपुर पीएसी कैंप तक पहुंच गई. पीएसी विद्रोह से निपटने के लिए सेना बुलानी पड़ी. गोरखपुर में पीएसी और सेना के जवान आमने-सामने थे. प्रशासन ने इस संकट में महंत अवेद्यनाथ को याद किया, तो वो बेहिचक खुली जीप में पीएसी कैंप पहुंचे. उन्हें देखते ही पीएसी के जवानों का आक्रोश शांत हो गया. पीएसी के जवान अपना आंदोलन भूल महंत अवेद्यनाथ और गोरक्ष पीठ का जयकार करने लगे.
महंत अवेद्यनाथ का वही संकटमोचक स्वरूप अयोध्या आंदोलन से जुड़े साधु-संतों की संजीवनी भी बना. उनकी बातों में वजन भी था और व्यापक असर भी. साध्वी ऋतंभरा कहती हैं, “जब कोई योजना बन रही होती थी, तो वो बहुत बड़े योजक थे, उनकी उपस्थिति सारी समस्याओं का समाधान कर देती थी. मैंने देखा है कि महापुरुषों के पास समस्याओं के समाधान चुटकी बजाकर हो जाते हैं. महंत जी ऐसे ही थे. उन्हें लगता था कि जन मेदिनी आएगी, सारा भारत राममय हो जाएगा. जातिभेद की दीवार खत्म हो जाएगी. वो गद्दी राजनीति से ही जुड़ी रही है. उनके गुरुदेव रहे. राजनीति ऐसी जो धर्म परायण रही. महंत अवेद्यनाथ उसी परंपरा के संवाहक थे. उनके मंच पर उनका भाषण सुनना और बैठकों में दो शब्दों में बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता था.”
गृह मंत्री अमित शाह कहते हैं, “महंत जी राम जन्मभूमि आंदोलन की आत्मा थे… इतिहास उनको कभी भुला नहीं पाएगा… ये पीठ ने हमेशा नाथ संप्रदाय का आध्यात्मिक नेतृत्व किया… पूर्वांचल को चेतना देने का काम किया है.” रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह याद करते हुए कहते हैं, “एक घटना मुझे याद आती है. 1974 में एमएससी का छात्र था. कुछ अलगाववादी ताकतों ने विमान अगवा कर लिया था और हाइजैक करने के बाद लाहौर ले गए. लाहौर ले जाकर सारे यात्रियों को उतार कर जहाज को जला दिया. हम छात्र भी बेहद गुस्से में थे. मैंने उस समय छात्रों का संगठन खड़ा किया था. मैं अवैद्यनाथ के पास गया, तब विरोध स्वरूप बंद. उन्होंने कहा कि लोगों में बेहद आक्रोश है और तुमने निर्णय कर लिया है कि बंद कराना है, तो… पूरा विश्वास है कि गोरखपुर पूरी तरह बंद हो जाएगा. सामान्यतः बंदी करानी होती है, लेकिन उनका ऐसा व्यक्तित्व था..सफेद दाढ़ी, आंखों पर चश्मा, लेकिन वाणी में ओज. सहज रूप से ये व्यक्तित्व उनको आकर्षित करता था.”
पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद कहते हैं, “स्वाधीनता की लड़ाई में गांधी को कोई ऐसा नाम नहीं मिला. महात्मा गांधी को किसी एक नाम की जरूरत थी, जिसके पीछे पूरा देश खड़ा हो तो उन्होंने आवाज उठाई- रघुपति राघव राजा राम… पूरे देश को रघुपति राघव से जोड़ने की कोशिश की और सफल रहे, जब गांधी समाधि पर जाता था तो कहीं न कहीं लगता था कि गांधी कह रहे हैं कि जिस राम का नाम लेकर देश मुक्त हो गया. हमारी जन्मभूमि मुक्त हुई, लेकिन राम की जन्मभूमि मुक्त नहीं. गांधी की उस पीड़ा को इस आंदोलन में महंत अवेद्यनाथ ने महसूस किया.”
राम मंदिर आंदोलन जब 1992 के बाद ठंडा होने लगा. रामभक्तों की उम्मीदें टूटने लगीं, तब भी महंत अवेद्यनाथ की आंखों में एक ही सपना था- अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण. साध्वी ऋतंभरा कहती हैं, ढांचा ध्वस्त हो गया, राजनीतिक उथल-पुथल हो गई, राष्ट्रपति शासन लग गए, मुकदमे हुए, गिरफ्तारियां हुईं… वो वातावरण ऐसा था, जिसकी वजह से लंबा समय लगा… महंत जी उन लोगों में थे, जिनकी आंखें लगी थीं कि मंदिर का निर्माण हो… संत के पास शौर्य होता है तो धैर्य भी… महंत जी कहते थे कि धैर्य रखो…
फैसले से 2 साल पहले दीपोत्सव की शुरुआत
श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के संस्थापक सदस्य रामविलास वेदांती ने कहा, “जब परमहंस की चिता जल रही थी, तब महंत अवेद्यनाथ का भाषण हुआ. एक न एक दिन सबको जाना होगा, क्या हम अपनी आंखों से मंदिर बनता देखेंगे. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण में कहा कि महंत जी, सबको एक दिन जाना है, लेकिन आज जलती चिता के सामने कहना चाहता हूं कि हमारी ही पार्टी का एक महापुरुष आएगा, जो भव्य राम मंदिर का निर्माण करेगा. इस संकल्प की पूर्ति होगी. 9 नवंबर को जब निर्णय आया, तब अटल की बात सत्य होती दिखाई दी.”
अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का रास्ता 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद साफ हुआ, लेकिन मंदिर आंदोलन के कर्णधार महंत अवेद्यनाथ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ ने उससे दो साल पहले ही अयोध्या में दीपोत्सव की शुरुआत कर दी थी… ये शायद संकेत था कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का जो संकल्प उनके दादा गुरु महंत दिग्विजयनाथ ने देखा था और जिस आंदोलन की नींव के पत्थर उनके गुरु महंत अवेद्यनाथ थे, उस आंदोलन के संकल्प की सिद्धि का समय आ चुका है.
गुरु की परंपरा को आगे बढ़ा रहे योगी आदित्यनाथ
राम मंदिर निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया, तो रामलला के विग्रह को टेंट से अस्थायी मंदिर में प्रतिष्ठित करने वाले भी गोरक्ष पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ ही थे. 6 दिसंबर 1992 के बाद से ही रामलला अपने गर्भगृह वाले स्थान पर टेंट के नीचे थे, जिन्हें 27 साल 3 महीने और 20 दिन बाद योगी आदित्यनाथ ने अपने सिर पर रखकर अस्थायी मंदिर में अपने हाथों से स्थापित किया… उसी दिन उन्होंने 11 लाख रुपये का चेक समर्पण निधि के रूप में राम मंदिर निर्माण न्यास को सौंपा.
अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का दायित्व महंत योगी आदित्यनाथ को अपने गुरुजनों से विरासत में मिला था, इसलिए मंदिर निर्माण के हर अहम पड़ाव पर योगी आदित्यनाथ स्वयं सक्रिय रहे. महंत अवेद्यनाथ के प्रति ये उनके उत्तराधिकारी और शिष्य योगी आदित्यनाथ की गुरु दक्षिणा भी है कि जिस आंदोलन की नींव का पत्थर उनके गुरु ने एकत्र किया था, उन्हीं पत्थरों से अब अयोध्या में भव्य राम मंदिर योगी आदित्यनाथ की देख-रेख में आकार ले रहा है.