कब हुई थी पहली रामलीला, किन-किन देशों में होता है मंचन, क्यों जन-जन के दिल में बसते हैं राम?

वर्षा विगत शरद ऋतु आई. लक्ष्मण देखहु परम सुहाई. यह तुलसी ने लिखा था शरद के बखान पर. तुलसी ने सही लिखा- शरद में कुछ बात जरूर है. आते ही मन लउछियाने लगता है. वातावरण उत्सव और उल्लास के गंध से सुशोभित होने लगता है. कानों में रामलीला के संवाद प्रतिध्वनित होने लगते हैं. मन राममय होने लगता है. बचपन लौट आता है. स्मृतियों के कबाड़ पर बैठ जाता हूं. रामलीलाओं की यादें सताने लगती हैं. रोजी रोटी की व्यस्तताओं के बीच अब रामलीला का मंचन देखने का वक्त तो नहीं मिल पाता है पर मन वहीं रमता है. मैंने बचपन से काशी की इस अनमोल परंपरा को जगह-जगह फलीभूत होते देखा है. रामलीलाओं की शक्ति अपरंपार है. कुछ भी हो, कैसा भी हो, कहीं भी हों पर रामलीलाएं पीछा नहीं छोड़ती हैं.

तो रामलीलाएं मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती, क्योंकि रामलीला के बीज-केंद्र अयोध्या और बनारस से अपना नाता रहा है. दोनों रामलीला की धरती हैं. त्रेता की अयोध्या में राम लीला के जीवित स्थान थे. तो बनारस में सोलहवीं शताब्दी में तुलसीदास ने रामकथा को जन जन तक पहुंचाने के लिए रामलीला शुरू कराई. रामायण और रामचरितमानस को पढ़कर रामकथा को समझने वाले लोग कितने होंगे, यह बहस का विषय हो सकता है. मगर उत्तर भारत में रामलीलाओं के जरिए ही रामकथा घर-घर पहुंची, इसमें कोई दो राय नहीं है.

देश में रामलीलाएं कब शुरू हुईं, इसके भी कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते. लेकिन 1500 ईं में गोस्वामी तुलसीदास (14971623) ने जब आम बोलचाल की भाषा अवधी में भगवान राम के चरित्र को रामचरित मानस में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के जरिए उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा. बनारस में सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास ने ही अपने रामचरितमानस पर रामलीलाएं शुरू कराई. दरअसल 1577 ई. में गोस्वामी तुलसीदास ने जब लोकभाषा अवधी में भगवान राम के चरित्र को उतारा, तो उनके सामने भारी समस्या थी कि उस किताब की मार्केटिंग कैसे हो? किताब लोगों तक कैसे पहुंचे? पंडित और विद्वान उनसे पहले से ही नाराज थे क्योंकि तुलसीदास देव भाषा संस्कृत की जगह देवता का बखान लोकभाषा में कर रहे थे.

तब टीवी, रेडियो और सोशल मीडिया जैसे दूसरे प्रचार के साधन भी नहीं थे. छापाखाना भी नहीं था. किताबों की केवल हस्तलिखित प्रतियां होती थीं. तो आखिर किस प्लेटफॉर्म के जरिए रामचरितमानस आम लोगों तक पहुंचे? तुलसी के सामने यह बड़ी समस्या थी. इससे निपटने के लिए तुलसीदास ने एक जुगत निकाली. वे लोगों के बीच जाकर रामकथा गाकर सुनाने लगे और देशभर में, खासकर उत्तर भारत में उन्होंने रामलीला का मंचन शुरू करवाया. राम का चरित लोक में गाकर सुनाया जाने लगा. तुलसी की यह तरकीब हिट हुई. रामलीलाएं लोकप्रिय होने लगीं. कहते हैं, उस वक्त रामलीलाएं शुरू कराने के पीछे तुलसीदास का एक उद्देश्य जनमानस में यह आत्मविश्वास भरना था कि जिस प्रकार राम के युग में रावण का अंत हुआ, वैसे ही इस काल में अत्याचारी मुगल शासन का भी अंत होगा.

बनारस में मेघा भगत रामलीला के जनक

तुलसीदास ने सबसे पहले यह प्रयोग खुद द्वारा स्थापित तुलसी अखाड़े में रामचरितमानस के मंचन से शुरू किया. तुलसी ने इस काम में अपने मित्र मेघा भगत की मदद ली. मेघा भगत वाराणसी के कमच्छा इलाके में रहकर बच्चों को संस्कृत पढ़ाते थे. आनंद के लिए वे वाल्मीकि रामायण के आधार पर रामलीला का मंचन भी करते थे. लेकिन संस्कृत की वह लीला आम लोगों में उतनी लोकप्रिय नहीं थी. तुलसीदास ने मानस के आधार पर रामलीला के मंचन का आग्रह मेघा भगत से किया. मेघा भगत ने इसे अंजाम दिया. अवधी भाषा में लिखे मानस के आधार पर रामलीला मंचन से ही यह लोगों में लोकप्रिय होनी शुरू हुई. इसी कथा के आधार पर अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास मानस का हंस में मेघा भगत के एक सशक्त चरित्र को बुना है.

मेघा भगत अपनी स्थितप्रज्ञता और भक्ति की एकनिष्ठता के कारण तुलसी के लिए श्रद्धास्पद ही नहीं, प्रेरणास्पद भी थे. तुलसी का सान्निध्य मेघा भगत के जीवन में एक मोड़ ले आता है. यहीं से वे अध्यापकीय वृत्ति से मुक्त होकर भक्ति-मार्ग की ओर चलते हैं. मेघा भगत को बनारस में रामलीला का जनक माना जाता है, पर उनके निजी जीवन के बारे में कोई खास जानकारी नही है. बस इतना ही पता चलता है कि वे गोस्वामी तुलसीदास के परम मित्र और राम के सच्चे भक्त थे. उनके द्वारा शुरू की गई रामलीला आज भी यथावत हर साल होती है जो नाटी इमली की रामलीला के नाम से मशहूर है. गौतम चंद्रिका के लेखक कृष्णदत्त मिश्र ने मेघा भगत का जिक्र किया है- कमला के मेघा भगत करि सुरधुनि नहान. तुलसी चरन पखारि गृह भजत राम धनुबान.

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने उनके संबंध में लिखा है कि वाराणसी में एक रामलीला चित्रकूट की रामलीला अथवा नाटी इमली की रामलीला के नाम से प्रसिद्ध है. जनश्रुति है कि वाराणसी के चित्रकूट स्थान पर पहले वाल्मीकि रामायण के अनुसार रामलीला होती थी. उसकी जगह तुलसीदास के रामचरितमानस के अनुसार मेघा भगत ने रामलीला का चलन किया.

रामनगर की रामलीला का अनुदान

बनारस शहर में चार रामलीलाएं ऐसी हैं जो चार सौ साल से ज्यादा पुरानी हैं. सबसे पुरानी रामलीला श्री चित्रकूट रामलीला समिति की है जो अब पांच सौ साल के पास पहुंच रही होगी. इसके अतिरिक्त मौनी बाबा की रामलीला, लाट भैरव की रामलीला और अस्सी की रामलीला का इतिहास चार सौ वर्षों से अधिक पुराना है. लाट भैरव की रामलीला का वर्षों तक मैं संरक्षक था. रामलीला की शुरुआत में जाता था. इस लीला का आकर्षण उसकी नक्कटैया थी. यह लीला लक्ष्मण द्वारा सूर्पनखा के नाक काटने के बाद की विजय यात्रा थी. संरक्षक के नाते इस जुलूस का नेतृत्व करना होता. मैं और रामलीला कमेटी के पदाधिकारी के साथ साथ सूर्पनखा हाथ में मूसल लिए. बड़ी हास्यास्पद स्थिति होती. सड़क के दोनों ओर कतार बद्ध हो लोग इस जुलूस को देखते. लगता था अपना ही जुलूस निकल रहा है.

बनारस की रामलीला से अपना जुड़ाव की एक और कथा है. इतिहासविदों के मुताबिक, देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी. साल 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया. यह लीला आज भी जारी है. देशभर की रामलीलाओं में सबसे प्रसिद्ध भी है. इस लीला में आधुनिकता के कोई तत्व मौजूद नहीं है. आज भी यह लीला बिना बिजली और साउण्ड सिस्टम के होती है. आजादी के बाद जब देश में स्टेट्स का मर्जर हुआ तो काशी राज के मर्जर की जो शर्तें थी, उसमें एक शर्त रामनगर की रामलीला के लिए एक मुश्त सालाना अनुदान भी तय हुआ. तब से सरकार हर साल इस रामलीला के लिए कुछ हजार का अनुदान देती रही. नब्बे के दशक में यह अनुदान लालफीताशाही के चलते बंद हो गया.

सरकार का तंत्र अनुदान के बदले कुछ अनुदान चाहने लगा. आज के राजा तबके युवराज अनंत नारायण सिंह लखनऊ आए. शहर के प्रतिष्ठित वकील और काशिराज के कानूनी मामलों की देखभाल करने वाले त्रिपुरारी शंकर जी के साथ. त्रिपुरारी जी मुझसे मिले. कहा- राजा साहब मिलना चाहते हैं. मैंने कहा, राजा साहब सम्माननीय हैं. वे मेरे यहां क्यों आएंगें. मैं राजा साहब से मिलने चलूंगा. मैं ताज लखनऊ में उनसे मिलने गया. तब पता चला कि रामनगर की लीला का अनुदान बंद हैं. तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे. उसी रोज मैं राजकुमार को लेकर कल्याण सिंह से मिला. उन्होंने पूछा कैसे आना हुआ. मैंने उनसे छूटते ही कहा आपकी सरकार राम के नाम पर आई है और रामनगर की रामलीला का अनुदान सरकार ने रोक रखा है. कल्याण सिंह आश्चर्यचकित हुए. तुरंत अफसरों को बुलाया डांट लगाई. और अनुदान न सिर्फ रिलीज करवाया बल्कि उसे चार गुना करने का आदेश दिया. ऐसे थे कल्याण सिंह.

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राधेश्याम रामायण जन-जन तक पहुंची

रामलीलाओं की बात हो और पं राधेश्याम कथावाचक का जिक्र न आए, यह बेईमानी होगी. बरेली के पं राधेश्याम कथा वाचक जी ने एक राधेश्याम रामायण लिखी. सिर्फ रामलीलाओं के संवाद की दृष्टि से. बचपन में देखी रामलीलाओं की रील सिर्फ इन संवादों के कारण आंखों के सामने से गुजरने लगती हैं. इस किताब का रावण अंगद संवाद कानों में अब भी गूंजता है- “रे बानर तू कौन है? क्या है तेरा नाम. आया क्यूं दरबार में, क्या है मुझसे काम?”.

इलाहाबाद और लखनऊ में पूरे दशहरे यह सुना करता था. हालांकि बनारस में रामलीला तुलसी के मानस के आधार पर ही होती थी. इसी राधेश्याम रामायण के आधार पर देश के कई हिस्सों में रामलीलाएं होती थीं. राधेश्याम रामायण में आठ काण्ड तथा 25 भाग हैं. इस रामायण में राम कथा का वर्णन इतना मनोहारी ढंग से किया गया है कि आप सुनें तो सुनते रह जाएंगे. यह रामायण हिन्दी, उर्दू, अवधी और ब्रजभाषा के आम शब्दों के अलावा एक विशेष गायन शैली में लिखी गयी है. अपनी भाषा और शैली के कारण राधेश्याम रामायण इतनी लोकप्रिय हुई कि राधेश्याम कथावाचक के जीवनकाल में ही इस ग्रन्थ की हिन्दी व उर्दू में दो करोड़ से ज्यादा प्रतियां छपीं और बिकीं. पं. राधेश्याम कथावाचक की रामायण में पूरी नाटकीयता है. रामकथा इस अद्भुत क्रांतिकारी कवि की ऋणी है. राधेश्याम जी ने रामकथा को लोक में पहुंचाने में बड़ा काम किया. यही वजह है कि रामलीलाओं में आज भी राधेश्याम जी को संवाद जन-जन को कंठस्थ हैं.

1910 के आसपास हमारे देश में पारसी थिएटर चरम पर था. आगा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद बेताब के ड्रामे लोगों को दीवाना बना रहे थे. पंडित राधेश्याम की कविता और कला को इन्हीं थिएटरों की छाया मिली. बरेली में जन्मे राधेश्याम के घर के पास ही नाटक कंपनियां डेरा डालती थीं. उनके पिता कथावाचक थे. रुक्मिणी मंगल की कथा सुनाते-सुनाते राधेश्याम को उन्होंने संगीत सिखाया. अब कथा गीत गाते थे राधेश्याम और व्याख्या करते थे उनके पिता. नाटकों के दीवाने पंडित राधेश्याम ने बरेली में देखे गए नाटकों के गानों की तर्ज पर भजन और धुनें बना डाली. यहीं से शुरू हुआ भारत में रामकथा के संवादों का स्वर्ण युग.

1910 में पंजाब के नानक चंद खत्री की न्यू अलबर्ट कंपनी बरेली आई. तब तक रामकथा के गायक के रूप में राधेश्याम को ख्याति मिल चुकी थी. उनकी भाषा ने रामकथा को एक नया संस्कार दिया. यह खड़ी बोली का सबसे व्यापक प्रयोग था. राधेश्याम की प्रतिभा से पारसी थियेटर में रामकथा गूंजने लगी. लेकिन इससे बड़ा स्थायी परिवर्तन हुआ दस साल बाद जब राधेश्याम रामायण छपी. रामलीलाओं को पात्रों के लिए उनके संगीतबद्ध संवाद मिल गए.

राधेश्याम रामायण में संवाद की अदायगी ने रामलीलाओं का आनंद ही कई गुना कर दिया. नगाड़े की गमक और ढपली की थाप के साथ जब रामलीला के कलाकार पं. राधेश्याम के परशुराम-लक्ष्मण संवाद, अंगद-रावण संवाद, हनुमान-रावण संवाद बोलते थे भीड़ का रोमांच देखते ही बनता था. उनके संवाद रामलीला देखने आए दर्शकों की स्मृतियों में सदैव के लिए अंकित हो गए. वाल्मीकि से तुलसी तक हनुमान के संवादों को ज्ञान और भक्ति की गरिमा दी गई. पर पं. राधेश्याम की कविताई ने उसमें नाटकों का अनोखा रोमांच भर दिया. राधेश्याम रामायण में हनुमान और मेधनाद के संवाद में अद्भुत शब्द व्यंजना है. इसे मंच पर सुनकर रोमांच होना स्वभाविक ही था- मसलन…

मैं मेघनाथ कहलाता हूं, बैरी को सदा हराया है।

जीता है मैंने स्वर्गलोक, पद इन्द्रजीत का पाया है।।

पर तू भयभीत न हो मन में, बल नहीं तुझे दिखलाउंगा।

श्रीमान पिताजी के सम्मुख, केवल तुझे ले जाऊंगा।।

हनुमत बोले युद्ध कर, बातों का क्या काज।

इन्द्रजालिये खेल ले, इंद्रजाल सब आज।।

यदि तुझको कुछ बन पड़े नहीं, तो अभी पिता को बुलवाले।

क्यों खड़ा हुआ मुंह तकता है, अपने सब करतब दिखलाले।।

तेरा मेरा रण ही क्या है, मैं तुझको खेल खिलाता हूं।

तू मेघनाथ कहलाता है, मैं रामदास कहलाता हूं।।

तू इन्द्रजीत छलवाला है, मैं कामजीत बलवाला हूं।

तू दीपक है, मैं हूं मशाल, रविकुल रवि का उजियाला हूं।।

रावण और हनुमान के संवाद सुनिए. यहां पं. राधेश्याम ने रामकथा की नाटकीयता को चरम पर पहुंचाया. लेकिन उनकी भाषाई श्रेष्ठता देखिए. वाल्मीकि से पं. राधेश्याम तक रामकथा के चरित्रों का अपूर्व भाषाई विभूति के साथ यह हमारी धरोहर है.

लंकेश्वर की सभा में, पहुचें जभी कपीश।

क्रोधित होकर उसी क्षण, बोल उठा दसशीश।।

रे वानर तू कौन है, क्या है तेरा नाम।

आया क्यों दरबार में, क्या है मुझसे काम।।

तू कौन कहां से आया है, कुछ अपनी बात बता बनरे।

उद्यान उजाड़ा क्यों मेरा, क्या कारण था बतला बनरे।।

लंका के राजा का तूने, क्या नाम कान से सुना नहीं।

तू इतना ढीठ निरंकुश है, मेरे प्रताप से डरा नहीं।।

मारा है अक्षकुवंर मेरा, तेरा क्यों न संहार करूं।

तू ही न्यायी बनकर कहदे, तुझसे कैसा व्यवहार करूं।।

ब्रह्मफांस से मुक्त हो, बोले कपि सविवेक।

उत्तर कैसे एक दूं, जब हैं प्रश्न अनेक।।

दशमुख की प्रश्न-पुस्तिका के, पन्ने क्रम-क्रम से लेता हूं।

पहला जो पूछा सर्व प्रथम, उसका ही उत्तर देता हूं।।

सच्चिदानंद सर्वदानंद, बल बुद्धि ज्ञान सागर हैं जो।

रघुवंश शिरोमणि राघवेंद्र, रघुकुल नायक रघुवर हैं जो।।

जो उत्पत्ति स्थिति प्रलय रूप, पालक पोषक संहारक हैं।

इच्छा पर जिनकी विधि-हरिहर, संसार कार्य परिचालक हैं।।

जो दशरथ अजर बिहारी हैं, कहलाते रघुकुल भूषण हैं।

रीझी थी जिनपर सूर्पनखा, हारे जिनसे खरदूषण हैं।।

फिर और ध्यान दे लो जिनकी, सीता को हरकर लाए हो।

मैं उन्हीं राम का सेवक हूं, तुम जिनसे वैर बढ़ाये हो।।

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300 से ज्यादा रामकथाएं

रामलीलाओं में ये गाए संवाद उत्तर भारत में लोगों के याद हैं. राम चरित पर यों तो कई भाषाओं में ग्रंथ लिखे गए, पर जो दो मूल ग्रंथ हैं उनमें पहला वाल्मीकि रामायण जिसमें 24 हजार श्लोक और सात कांड हैं और दूसरा ग्रंथ गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस है, जिसमें 9,388 चौपाइयां, 1,172 दोहे और 108 छंद हैं. इसके अलावा 300 से ज्यादा ऐसी रामकथाएं हैं जो दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रचलित हैं. रामकथा के अध्येता प्रो. कामिल बुल्के ने अपनी किताब रामकथा में ऐसे 300 से ज्यादा किताबों का संदर्भ लिया है. इनके साथ ही राम पर 2 से 3 हजार लोक कथाएं भी हैं.

रामायण दुनिया की अकेली कहानी है, जो अलग-अलग तरह से पढ़ी और कही जाती है. दुनियाभर में 50 से ज्यादा भाषाओं में रामकथा लिखी गई है. भारत के अलावा 9 और देश हैं जहां राम कथा को किसी ना किसी रूप में पढ़ा और सुना जाता है. रामायण की रचना काल को लेकर 3 अलग-अलग दावे हैं. ब्रिटिश इतिहासविद जी. गोरेसिया के मुताबिक वाल्मीकि ने ही आदि रामायण की रचना की है जो ईसापूर्व 12वीं से 14वीं शताब्दी की है, मतलब करीब 3400 साल पुरानी.

वहीं एक और इतिहासविद डीएडब्ल्यू. श्लेगेल का मानना है कि रामायण का रचना काल ईसा पूर्व 11वीं से 13वीं हैं शताब्दी यानी 3300 साल पहले का है. ये शोध उन्होंने जर्मन ओरिएंटल जर्नल में प्रकाशित किया था. प्रो कामिल बुल्के ने अपनी किताब रामकथा के इतिहास में लिखा है कि सारे प्रमाण देखने के बाद ये कहा जा सकता है कि रामायण का रचनाकाल ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी यानी करीब 2400 साल का है.

प्रो बुल्के के मुताबिक रामकथा का सबसे पहला उल्लेख दशरथ जातक कथा में मिलता है. जो ईसा से 400 साल पहले लिखी गई. इसके बाद ईसा से 300 साल पहले का काल वाल्मीकी रामायण का है. रामायण के बारे में एक मत चलन में है कि सबसे पहली रामायण हनुमानजी ने लिखी थी, फिर महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की. हनुमन्नाटक’ को हनुमानजी ने एक शिला पर लिखा था. यह रामकथा वाल्मीकि की रामायण से भी पहले लिखी गई थी.

एक मान्यता यह भी है कि सबसे पहली रामकथा भगवान शंकर ने पार्वती को सुनाई थी. उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया. उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ. काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर से सुनी रामकथा पूरी की पूरी याद थी. उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई. ऐसे रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ. भगवान शंकर के मुंह से निकली यह पवित्र कथा ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से विख्यात हुई, यानी अध्यात्म रामायण दुनिया की पहली रामायण हुई.

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दुनिया में रामलीला का मंचन

दुनिया में किसने कब किया था सबसे पहली रामलीला का मंचन? इसका कोई प्रामाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. लेकिन हर रामकथा का नाट्य रूपांतरण हुआ. थाईलैंड की रामकियेन, इंडोनेशिया की रामायण काकावीन, कंबोडिया की रामकेर, बर्मा (म्यांमार) की रामवत्थु, लाओस की फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक), फिलिपींस की मसलादिया लाबन, मलेशिया की हिकायत सेरीराम, श्रीलंका की जानकी हरण, नेपाल- भानुभक्तकृत रामायण, जापान- होबुत्सुशू आदि रामकथाएं हैं. चीनी साहित्य में रामकथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं पर बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएं मिलती हैं. ‘अनामकंजातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’.

दक्षिण-पूर्व एशिया में कई पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले, जिससे साबित होता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का मंचन होता रहा था. जावा के सम्राट वलितुंग के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है. यह शिलालेख 907 ई के हैं. इसी प्रकार थाईलैंड के राजा ब्रह्मत्रयी के राजभवन की नियमावली में रामलीला का सन्दर्भ है, जिसकी तिथि 1458 ई है.

इंडोनेशिया और मलेशिया में मुखौटा रामलीला का मंचन किया जाता है. जावा तथा मलेशिया के वेयांग और थाईलैंड के नंग में रामलीला का छाया नाटक किया जाता है जो हिकायत सेरीराम पर आधारित है. छाया नाटक कठपुतली के जरिए होता है. थाईलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य रामाकीन है. इस नाम का मतलब राम की कीर्ति है. यह वाल्मीकी रामायण से लिया गया है. थाईलैंड की छाया रामलीला को नंग कहते है. इसको सफेद पर्दे पर दिखाते है. फिर उसके सामने पुतलियों को इस तरह नचाया जाता है कि उसकी छाया पर्दे पर पड़े.

लाओस में गाने और थिएटर के साथ, डांस, पेंटिंग और थिएटर के जरिए रामलीला होती है. लाओस के राष्ट्रीय महाकाव्य फराक फलाम की कहानी रामकथा से मिलती है. इसका अधिकांश भाग भगवान बुद्ध पर आधारित है. इसमें हिंदू देवताओं के भी वर्णन हैं. इसके एक पात्र का नाम लाख है जिसका मतलब लक्ष्मण से है और जो राम के नाम से मौजूद बुद्ध के साथ हर जगह खड़े मिलते हैं.

सूरीनाम की रामलीला में डच प्रभाव दीखता है. रामलीला में पात्रों के नाम सूरीनाम में थोड़े बदल जाते हैं. इसे लेकर यहां के लोगों में खासा उत्साह रहता है. इसका सीधा प्रसारण भी होता है. डच प्रभाव की वजह से भगवान राम रामत्जांद्रे व सीता सियेता हो जाती हैं. जापान में भी राम का गुणगान जापान के लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशू में मिलता है. इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने 12वीं शताब्दी में की थी. कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ छह परिमितासूत्र है. यह कथा वस्तुतः चीनी भाषा के अनामकं जातक पर आधारित है, लेकिन इन दोनों में काफी अंतर भी है.

मॉरीशस में रामलीला गाई जाती है. यहां रामलीला झाल-ढोलक के साथ गाई जाती है. यहां की रामलीला इतनी मशहूर है कि अभिनय के लिए भारतीय कलाकारों को बुलाया जाता है. कंबोडिया में रामायण सबसे प्रसिद्ध साहित्य है. इस बौद्ध देश में हिंदू धर्म का प्रभाव है, क्योंकि यहां करीब 600 सालों तक हिंदू खमेर साम्राज्य का शासन था. यहां रामलीला तुलसीदास रचित रामचरितमानस के आधार पर खेली जाती है. म्यांमार की रामलीला में विदूषक की मुख्य भूमिका होती है. म्यांमार की रामलीला यामप्वे कहलाती है. इसमें मुखौटों का इस्तेमाल होता है. यहां के लोग हास्य रस के बहुत प्रेमी होते हैं. इसलिए यामप्वे में विदूषक की भूमिका मुख्य मानी जाती है. श्रीलंका के 250 गांवों में रामलीला का मंचन होता है.

रूस में रामायण की प्रस्तुति मास्को में थिएटर कलाकार करते हैं. भारतीय पौराणिक कथाओं और रूसी लोककथाओं में अच्छाई और बुराई के संघर्ष और मातृभूमि के प्रति प्रेम जैसे समान विषय हैं. सोवियत संघ में रामायण की पहली मंचीय प्रस्तुति 1960 में मॉस्को के चिल्ड्रन थिएटर में हुई थी. रूसी अभिनेता गेन्नडी मिखाइलोविच पेचनिकोव ने इस रूसी अनुवाद का सह-निर्देशन किया और राम की भूमिका निभाई. वे इस भूमिका को 40 वर्षों तक निभाते रहे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. पेचनिकोव ने राम की भूमिका निभाने के लिए शाकाहारी जीवन अपना लिया था.

कैरेबियन में रामलीला गयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो और सूरीनाम में रामलीला आज भी सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण घटना है. यह परंपरा 1838 से 1917 के बीच भारतीय गिरमिटिया मजदूर द्वारा कैरेबियन इलाके में पहुंची. कोरिया से अयोध्या के तार जुड़े हैं. हालांकि वहां रामकथा पर आधारित कोई मंचन की जानकारी नहीं है. कोरिया के इतिहास बताता है कि हजार साल पहले अयोध्या की राजकुमारी सुरीरत्ना नी हु ह्वांग ओक अयुता (अयोध्या) से दक्षिण कोरिया के ग्योंगसांग प्रांत के किमहये शहर आई थीं. फिर राजकुमारी कभी अयोध्या नहीं लौटीं. चीनी भाषा में दर्ज दस्तावेज सामगुकयुसा में कहा गया है कि ईश्वर ने अयोध्या की राजकुमारी के पिता को स्वप्न में आकर ये निर्देश दिया था कि वह अपनी बेटी को उनके भाई के साथ राजासुरो से विवाह करने के लिए किमहये शहर भेजें.

आज भी कोरिया में कारक गोत्र के तक़रीबन साठ लाख लोग ख़ुद को राजा सुरो और अयोध्या की राजकुमारी के वंश का बताते हैं. इस पर यक़ीन रखने वाले लोगों की तादाद दक्षिण कोरिया की आबादी के दसवें हिस्से से भी ज़्यादा है. पूर्व राष्ट्रपति किम डेई जंग और पूर्व प्रधानमंत्री हियो जियोंग और जोंग पिल किम इस वंश से आते थे. कारक वंश के लोगों का एक समूह हर साल फरवरी मार्च के दौरान इस राजकुमारी को श्रद्धांजलि देने अयोध्या आता है.

उन्नीसवीं सदी में रामलीलाओं की संख्या बढ़ी. इसके पीछे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनमानस को एकजुट करना भी मकसद था. वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में गणेश पूजा.

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रामलीला की खासियत

बनारस में रामनगर की रामलीला नवरात्रि में शुरू होकर शरत पूर्णिमा तक चलती है. तुलसी दास जी काशी के घाट पर रामलीला दोपहर और शाम में करवाते थे. श्रीचित्रकूट रामलीला समिति के पंच स्वरूप पूरी लीला के दौरान अपने घर नहीं जाते. राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और सीता की भूमिका निभाने वाले किशोर लीला स्थल पर ही रहते हैं. रामलीला का क्रम 21 दिनों तक चलता है.

बनारस की सबसे प्रसिद्ध रामनगर रामलीला की खासियत यह है कि इसके दर्शक भी लीला के पात्र होते हैं. वो उसे जीते हैं. दस से पचास हजार लोग महीने भर बनारस से राम नगर जाते हैं. अनंतचतुर्दशी से शुरू होकर यह लीला शरद पूर्णिमा तक चलती है. लीला में महीने भर बनारसी दोपहर बाद ही रामनगर पहुंचते हैं. अहरा (गोबर के उपले पर खाना बनाना) और साफा (नहाना धोना) लगता है. इसे बनारसी बहरी अलंग की सैर भी कहते है. रामनगर की इस लीला में बिजली और लाउडस्पीकर की जगह पैट्रोमैक्स और मशालें होती हैं. इस लीला पर 1965 के युद्ध में रोक के बादल मंडराए थे, पर लीला हुई पैट्रोमैक्स पर छाता लगाकर, ताकि ब्लैक आउट के दौरान रोशनी आसमान से दुश्मन के लड़ाकू जहाजों को न दिखे.

रामनगर की रामलीला में सावन की कृष्ण चतुर्थी को गणेश पूजन के साथ पांच स्वरूपों (राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न) का चुनाव और नामकरण होता है. भादों शुक्ल चतुर्थी को द्वितीय गणेश पूजन के साथ चौक पक्की पर रामचरितमानस के बालकांड के दोहे का पाठ शुरू होकर भादों शुक्ल त्रयोदशी तक 175 दोहों का पाठ होता है. भादों शुक्ल चतुर्दशी को रावण जन्म से लीला का मंचन शुरू हो कुआर शुक्ल पूर्णिमा को श्रीराम उपवन-विहार, सनकादिक-मिलन, पुरजनोपदेश के साथ संपन्न होती है.

कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा को अनूठी जीवंत लीला कोट विदाई का आयोजन होता है. इसमें रामलीला के पांचों स्वरूप एवं लीला के अन्य मुख्य पात्र काशीराज दुर्ग में पधारते हैं. काशीराज उनकी पूजा कर, भोग लगा, दक्षिणा दे उनकी विदाई करते हैं. इस रामलीला के संवादों एवं पदों की रचना काष्ठजिह्वा स्वामी और महाराज रघुराज ने की है, जो रामचरितमानस के अनुसार है. सैकड़ों साल पहले लिखे इन संवादों में आज तक कोई बदलाव नहीं हुआ है. रामलीला के पांचों स्वरूपों का चयन हर साल होता है, जो रामनगर के बाहर के होते हैं, इन्हें एक महीने पहले से ही कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है. शेष पात्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी भूमिका को जीते हैं. पात्रों को संवाद कंठस्थ कराया जाता है, बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्र के ऊंचे स्वर में संवाद बोलने की ट्रेनिंग दी जाती है. लीला के प्रसंगानुसार ही लीला स्थल तय हैं, जैसे-अयोध्या, जनकपुर, पंपासर, चित्रकूट, पंचवटी, लंका आदि स्थायी तौर पर रामनगर में हैं, जो अब स्थानीय मुहल्ले बन गए हैं.

चित्रकूट रामलीला की खासियत यह है कि यहां संवाद नहीं के बराबर होता है. इसके जगह रामचरितमानस का पाठ होता है. अठारहवें दिन नाटी इमली के मैदान पर विश्व के सबसे कम समय के सबसे बड़े मेले भरत मिलाप का आयोजन होता है. यह मेला बनारस के लख्खा मेले के रूप में जाना जाता है. पांच से दस मिनट के इस नयनाभिराम दृश्य के लिए काशी नरेश के साथ ही लाखों लोग देश-विदेश से आते हैं. भरत-मिलाप के समय इसके सम्मान में काशी की दूसरी सारी रामलीलाओं को विराम दिया जाता है.

ऐसी मान्यता है कि अयोध्या में स्वयं श्रीराम ने बाल रूप में ये धनुष-बाण मेघा भगत को दिए थे. यहां की रामलीला के संबंध में एक जनश्रुति यह है कि सन 1868 में रामलीला मंचन के समय तत्कालीन पादरी मैकफर्सन ने हनुमान का किरदार निभा रहे पं. टेकराम भट्ट को उकसाया कि- महाकाव्य के अनुसार हनुमान सौ योजन लंबे समुद्र को लांघ गए थे. आप यह वरुणा नदी पार कर दो तो हम मानेंगे, नहीं तो लीला बंद कर दी जाएगी. यह सुन हनुमान बने पात्र ने श्रीराम से आज्ञा लेकर एक छलांग में वरुणा नदी पार कर दी. वरुणा नदी पार करने के बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए. उनका मुखौटा आज भी वरुणातट पर स्थित हनुमान मंदिर में सुरक्षित है.

Ramleela (7)

राम के होने की कहानी

ये राम हैं कौन? जिनकी लीलाएं लोगों को खींचती हैं. राम लोकमंगलकारी है. गरीब नवाज हैं. मर्यादा पुरूषोत्तम हैं. ईक्ष्वाकु वंश के राजा थे. इक्ष्वाकू मनु के पुत्र थे. इनके वंश मे आगे चल कर दिलीप, रघु, अज, दशरथ और राम हुए. रघु सबसे प्रतापी थे इसलिए वंश का नाम रघुवंश चला. रघुवंश के कारण ही राम को राघव, रघुवर ,रघुनाथ भी कहा गया. महाराज दशरथ के तीन रानियां थीं, लेकिन कोई पुत्र नहीं था. इसलिए उन्होंने पुत्रेष्टी यज्ञ के लिए श्रृंगमुनि को बुलाया. यज्ञ के आखिर में अग्नि से देव प्रकट हुए और दशरथ को खीर भेंट की. दशरथ ने खीर अपनी रानियों को खिलाई. आधी खीर कौशल्या को दी और आधी कैकेयी को. दोनों ने अपने अपने हिस्से की आधी खीर सुमित्रा को दी. नतीजतन कौशल्या ने राम को जन्म दिया. कैकेयी ने भरत को. सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए. यही राम के होने की कहानी है.

राम साध्य है, साधन नहीं. गांधी का राम सनातन, अजन्मा और अद्वितीय है. वह दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा नहीं है. वो आत्मशक्ति का उपासक प्रबल संकल्प का प्रतीक है. वह निर्बल का एक मात्र सहारा है. उसकी कसौटी प्रजा का सुख है. यह लोकमंगलकारी कसौटी आज की सत्ता पर हथौड़े सा चोट करती है- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवस नरक अधिकारी. वे सबको आगे बढ़ने की प्रेरणा और ताकत देता है. हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवंत, नल, नील सभी को समय-समय पर नेतृत्व का अधिकार उन्होंने दिया. उनका जीवन बिना हड़पे हुए फलने की कहानी है. वह देश में शक्ति का सिर्फ एक केन्द्र बनाना चाहते हैं. देश में इसके पहले शक्ति और प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केन्द्र थे. अयोध्या और लंका. राम अयोध्या से लंका गए. रास्ते में अनेक राज्य जीते. राम ने उनका राज्य नहीं हड़पा. उनकी जीत शालीन थी. जीते राज्यों को जैसे का तैसा रहने दिया. अल्लामा इकबाल कहते हैं- है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिन्द.

राम इस राष्ट्र की भी पहचान

राम का जीवन बिल्कुल मानवीय ढंग से बीता. उनके यहां दूसरे देवताओं की तरह किसी चमत्कार की गुंजाइश नहीं है. आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है. लूट, डकैती, अपहरण और भाइयों से सत्ता से बेदखली के शिकार होते हैं. जिन समस्याओं से आज का आम आदमी जूझ रहा है. कृष्ण और शिव हर क्षण चमत्कार करते हैं. राम की पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए अपनी गोल बनाई. लंका जाना हुआ तो उनकी सेना एक-एक पत्थर जोड़ पुल बनाती है. वे कुशल प्रबन्धक हैं. उनमें संगठन की अद्भुत क्षमता है. जब दोनों भाई अयोध्या से चले तो महज तीन लोग थे. जब लौटे तो एक पूरी सेना के साथ. एक साम्राज्य का निर्माण कर.

राम कायदे कानून से बंधे हैं. उससे बाहर नहीं जाते. एक धोबी ने जब अपहृत सीता पर टिप्पणी की तो वे बेबस हो गए. भले ही उसमें आरोप बेदम थे. पर वे इस आरोप का निवारण उसी नियम से करते हैं, जो आम जन पर लागू है. वे चाहते तो नियम बदल सकते थे पर उन्होंने नियम कानून का पालन किया. सीता का परित्याग किया जो उनके चरित्र पर धब्बा है. तो मर्यादा पुरुषोत्तम क्या करते? उनके सामने एक दूसरा रास्ता भी था, सत्ता छोड़ सीता के साथ चले जाते. लेकिन जनता (प्रजा) के प्रति उनकी जवाबदेही थी. इस रास्ते पर वे नहीं गए. इसलिए राम लीला आम लोगों को अपनी ओर खींचती है.

रामलीला इस बात का प्रमाण है कि यह देश राम को कैसे बरतता है. विदेशों में रामलीला इसका प्रमाण है कि राम की कथा और सीमा हमारे सोचने के दायरे से कहीं बड़ी और व्यापक है. समाज अनुशासन से चलता है. नियम से चलता है. मर्यादा से चलता है. इसलिए शिव की कथा और कृष्ण की कथाओं का मंचन नहीं होता. कृष्ण की रासलीला में प्रेम का पक्ष है, मित्रता और कूटनीति का पक्ष है. लेकिन रामकथा सबसे प्रचलित और स्वीकार्य है क्योंकि राम का चरित्र समाज को संबल देता है. राम का होना, समाज का मर्यादित और नीतिबद्ध होना है. राम इस राष्ट्र की भी पहचान हैं और हमारी भी.

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