कौवा, कुत्ता, गाय और ब्राह्मण- पितृपक्ष के यही चार केंद्रीय तत्व हैं. इन चारों में कौवा बढ़ते शहरीकरण, बिगड़ते पर्यावरण से लुप्त प्रजाति की ओर है. इस पितृ पक्ष में तो वह दिखा ही नहीं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कुत्ते नसबंदी के डर से भूमिगत हैं. गाय जो हमारी खेती और धर्म की धुरी थी, उसे उत्तर प्रदेश सरकार ने आवारा बना दिया है. ब्राह्मण, उसे आज की सामाजिक व्यवस्था में हाशिए पर ढकेलते-ढकेलते अब पितृपक्ष लायक ही छोड़ा गया है. चारों एक साथ नहीं मिल रहे हैं. फिर पितृपक्ष मने कैसे? इनके अंश का भोजन किसे दिया जाय? यह समस्या बड़ी है.
सवाल उठता है जो पितृ हमारे प्रिय हैं, हमारे कल्याण की चिंता करते हैं, वह अशुभ और अमंगल कैसे? पितृ पक्ष को अशुभ क्यों मानते हैं? मैनें खोजा, ढूंढा किसी शास्त्रीय ग्रंथों में इसे अशुभ नहीं माना गया है. न जाने क्यों और कैसे पितृपक्ष को हमारे कर्मकांडी पंडितों ने खराब, मनहूस और अशुभ बना दिया है. कई तरह की भ्रांतियां हैं. मसलन नए काम की शुरुआत नहीं हो सकती. शादी-विवाह, मुंडन, नामकरण, अन्नप्राशन, उपनयन या कोई शुभ काम नहीं हो सकता. लोग खरीद फरोख्त बंद कर देते हैं. बाजार ठहर जाता है. यहां तक कि नए कपड़े भी नहीं खरीदे और पहने जा सकते हैं. कुछ लोग तो यात्रा भी नहीं करते.
अगर पितृपक्ष में आपके पितर घर आते हैं, हमारे बीच रहते हैं, हम उन्हें आदर मान देते हैं. श्राद्ध और तर्पण करते हैं. पिंडदान करते हैं. हम उनके होने को महसूस करते हैं. तो हमारे लिए यह अवसर उत्सव, उल्लास, मेलजोल और आनंद का होना चाहिए. हमारे तर्पण और श्राद्ध से प्रसन्न होकर वे पितृ हमें आशीर्वाद देते हैं. हमारी खुशहाली की कामना करते हैं. तब यह पक्ष अशुभ कैसे हुआ? यह नासमझी है. हम अपने पितरों के संग साथ के वक्त को इतनी निगेटिविटी से कैसे जोड़ सकते हैं.
पूर्वजों को कृतज्ञता जताने के इस अवसर को आखिर कर्मकांडियों ने इतना डीमीन क्यों किया है. बड़ा सवाल है? इसका जवाब कहीं नहीं है. पितरों के लिए समर्पित इन सोलह खास दिनों की छवि आखिर कैसे निगेटिव हो गई? इन भ्रांतियों के कारण ही प्राचीन काल से चली आ रही एक स्वस्थ परंपरा अपने असली प्रभाव में कहीं खो गई है. अब पितृपक्ष में सारे कर्म और विधान मौजूद तो हैं, लेकिन अपने गलत और नकारात्मक अर्थ के साथ. पितृपक्ष को नकारात्मक या अशुभ मानना एक सामाजिक भ्रांति है, यह समय के साथ विकसित हुई. जो ज्यादातर पितृ और प्रेत के बीच का अंतर न जानने के कारण सामने आई है.
पितृपक्ष नए से ज्यादा बीते समय के पुनर्पाठ का वक्त
पितृपक्ष में नए कार्य, मसलन विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश, या नए वस्त्र धारण करने की मनाही का कारण सिर्फ इतना है कि आप इस अवधि में पहले पितृकर्म के प्रति ही समर्पित हों. इससे भटकें नहीं. एकाग्रता पितरों के प्रति हो. वैसे भी इस कालखंड में भगवान विष्णु के शयन के कारण सनातन परंपरा में कोई शुभमुहूर्त नहीं होता है. देवता सोते हैं और देवोत्थानी एकादशी को जगते हैं. तभी सारे शुभ काम शुरू होते हैं.
पितृ पक्ष में नए काम न करने की परंपरा इसलिए है ताकि पितरों के प्रति एकनिष्ठता रहे. सारा ध्यान उधर ही रहे क्योंकि पितर सिर्फ पन्द्रह दिनों के लिए ही आए हैं. ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, इस अवधि में नए कार्यों को टालकर पितृकर्म को प्राथमिकता दी जाती है. नए वस्त्रों को लेकर भी कोई सीधी मनाही नहीं है, लेकिन पितृ कर्म करते हुए आपके मन में वैसा ही शोक, वैसी ही भावना उपजती है जो आपको अपने किसी पूर्वज या पितृ की मृत्यु पर हुई थी. इसी शोक के कारण न तो उत्सव में मन रमता है, न नए वस्त्र भाते हैं और न ही स्वाद अच्छा लगता है. यह खुद में खुद से उपजी अनुभूति है न कि कोई पौराणिक या अध्यात्मिक वर्जना.
वैसे भी जीवन में हमेशा आगे और नए की ओर भागते रहना भी उचित नहीं है. पितृ पक्ष के माध्यम से एक अवसर हमें मिलता है जब हम आगे नहीं, पीछे पलटकर देखें. हम पीछे के, बिछड़े समय को याद करें. उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति के फर्क को समझें. वर्तमान में उनका होना हमें क्या सुझाव देता, सलाह देता, इसका मनन करें. सोचें, कि हमें संभालने वाले हाथ आज होते तो हमें क्या करने और क्या न करने की सलाह देते. इसलिए भी पितृपक्ष नए से ज्यादा बीते समय के पुनर्पाठ का वक्त है. लेकिन इस आधार पर इसे नकारात्मक या बुरा मानना निरा मूर्खता या नादानी है.
पुराणों में पितृपक्ष को बहुत शुभ और पवित्र काल बताया गया है. पितृ देवों को स्वर्ग में देवताओं से ऊंचा स्थान प्राप्त है इसलिए देव ऋण तो दैनिक पूजन-अर्चन से अच्छे आचरण से उतारा जा सकता है, पितृ ऋण आनुष्ठानिक काम है. महाभारत में पितामह भीष्म भी युधिष्ठिर से कहते हैं कि श्राद्ध पक्ष में पूरे मनोयोग से पितृ कल्प विधान करना चाहिए और इसे हर व्यक्ति को अपने सामर्थ्य और योग्यता के मुताबिक करे.
क्या पुनर्जन्म का सिद्धांत है सत्य?
आचार्यों के अनुसार, इस पक्ष में मनाही या वर्जनाओं की जो बात सामने आती है, वह सिर्फ इस अनुष्ठान का अनुशासन बनाए रखने के लिए की गई थी क्योंकि श्राद्ध पक्ष में पितृ कर्म को प्राथमिकता पर रखने के लिए कहा गया है, ताकि परंपराओं का सम्मान करते हुए लोग इस दौरान सादगी और संयम का पालन करें. हमारे शास्त्रीय विधानों को जब कर्मकांड में तब्दील किया जाता है तो अक्सर वह विकृत और हास्यास्पद हो जाते हैं. पितृ पक्ष के कर्मकांड के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ क्योंकि यह बड़ा विरोधाभासी बन गया. इसमें जो समझ से परे हैं. वह है. एक तरफ तो हम सृष्टि में पुनर्जन्म का सिद्धांत मानते हैं. मतलब कि घर के बुजुर्ग मरने के फौरन बाद अगले जन्म में कहीं न कहीं पैदा हो गए होंगे.
दूसरी तरफ, पितृपक्ष को देखकर यह भी लगता है कि मानो वे अंतरिक्ष में लटक रहे हैं और खीर पूड़ी के लिए तड़प रहे हैं. सोचिए अगर पुनर्जन्म होता ही है तो अंतरिक्ष में लटकने के लिए वे उपलब्ध नहीं होंगे. वे कहीं किसी अन्य व्यापार में लगें होंगे या किसी स्कूल में पढ़ रहे होंगे और अगर अंतरिक्ष में लटकना सत्य है तो पुनर्जन्म का सिद्धान्त गलत हुआ, लेकिन कर्मकांड बनाने वाले पंडित दोनों हाथ में लड्डू चाहते है इसलिए मरने के पहले अगले जन्म को सुधारने या मुक्ति के नाम पर उस व्यक्ति से कर्मकांड करवाएंगे और मरने के बाद उसके बच्चों को पितरों का डर दिखाकर उनसे भी खीर पूड़ी का इंतजाम जारी रखेंगे, तो महाराज इन दोनों बातों में कोई एक ही सत्य हो सकती है. पढ़े-लिखे और शिक्षित परिवार भी इस भ्रम और गफलत में आ जाते हैं.
गरुड़ पुराण हालांकि हमारे आश ग्रन्थों में सबसे रद्दी ग्रन्थ है, फिर भी वह अपने प्रेतकल्प में कहता है कि पितृपक्ष में पितर पृथ्वी पर अपने वंशजों के पास आते हैं और उनके द्वारा किए गए तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध से तृप्त होते हैं. यह पूरा समय पितरों की आत्मा को शांति देने और उनसे आशीर्वाद लेने का होता है. विष्णु पुराण में भी श्राद्ध का ऐसा ही महत्व है. वह कहता है कि पितरों की संतुष्टि से वंश को समृद्धि और सुख मिलता है. मार्कण्डेय पुराण के मुताबिक, श्राद्ध कर्म से पितरों को मोक्ष मिलता है और यह वंशजों के लिए पुण्यकारी होता है. ऋषि मार्कण्डेय कहते हैं कि मैं अल्पायु था, लेकिन पितरों के आशीष और उनके मार्गदर्शन से मुझे महामृत्युंजय मंत्र सिद्ध करने का सौभाग्य मिला.
सनातन परंपरा में श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष, 16 दिनों का ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें मौजूदा पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रति आभार जताती है और उन्हें सम्मान देती है, उन्हें याद करती है. पितृ या पितर शब्द होने के कारण इसे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इसमें माता का कोई स्थान नहीं है, बल्कि पितृ या पितर पूर्वजों के लिए प्रयोग होने वाला शब्द है, जिसका आधार वंश है और वंश का आधार माता-पिता दोनों ही होते हैं.
पितृ का सबसे पहला उल्लेख कहां?
पितृपक्ष की इस अवधि को पितृपास, पितृ पक्ष/पितृ-पक्ष, पितृ पोक्खो, सोरह श्राद्ध (सोलह श्राद्ध), कनागत, महालय श्राद्ध, अपरा पक्ष और अखाडपाक के नाम से भी जाना जाता है. भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष कहते हैं. मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें. श्राद्ध के जरिए ब्राह्मणों द्वारा पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है. पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है. पितृ का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है…
उदी॑रता॒मव॑र॒ उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तर॑: सो॒म्यास॑:।
असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥ (ऋग्वेद 10.15.1)
इस पूरे सूक्त के देवता पितर हैं और इसमें मुख्यतः यज्ञप्रक्रिया का विधान है, जिसमें दो प्रकार के पितर उपयुक्त होते हैं. एक जड़ पितर यानी सूर्य की रश्मियां, दूसरे चेतन पितर यानी ज्ञानी लोग. ऋग्वेद (10.16.1) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुंचाने में सहायक हो. अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुंचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें.
मैन॑मग्ने॒ वि द॑हो॒ माभि शो॑चो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम्।
य॒दा शृ॒तं कृ॒णवो॑ जातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तृभ्य॑:॥ (ऋग्वेद 10.16.1)
इस सूक्त का देवता अग्नि है. देहांत के बाद कृत्रिम अग्नि शव का किस प्रकार छेदन-भेदन, विभाग करती है तथा अजन्मा जीवात्मा को पुनर्देह धारण करने के लिए योग्य बनाती है, इसका वर्णन है. ब्रह्म वैवर्त पुराण कहता है कि देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए. हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है इसलिए पितरों की शांति जरूरी है.
पितरों की पांच कोटियां
पितर लोग देवों से भिन्न थे. ऋग्वेद के ‘पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्’ में इस्तेमाल शब्द ‘पंचजना:’ की ऐतरेय ब्राह्मण ने व्याख्या की है पितरों की पांच कोटियां हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस. अथर्ववेद में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं. वैदिक उक्तियां एवं व्यवहार दोनों देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं. तैत्तिरीय संहिता में आया है’देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बांट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर’. सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किए जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में.
कौवा कोर्वस वंश का एक पक्षी है जो अपनी बुद्धिमानी और सर्वाहारी स्वभाव के लिए जाना जाता है. यह बुद्धिमान और सतर्क प्राणी होता हैं. शनि देव का वाहन है, जो न्याय का प्रतीक है. इसे भी पितरों से जोड़ा जाता है. कुछ लोग इसे शुभ-अशुभ संकेतों के रूप में देखते हैं, जैसे कि घर में किसी अतिथि के आने का संकेत या यात्रा के शुभ या अशुभ होने का सूचक भी मानते हैं.
एक बार इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे का रूप धारण किया और माता सीता के पैर पर चोंच मार दी. इससे क्रोधित होकर भगवान राम ने एक तिनके का बाण चलाया, जिससे जयंत की दाहिनी आंख फूट गई. अपनी गलती का एहसास होने पर जयंत ने भगवान राम से क्षमा मांगी. भगवान राम ने उसे माफ करते हुए वरदान दिया कि पितरों को अर्पित किया गया भोजन कौवे को मिलेगा और इसे पाकर पितर तृप्त होंगे. यही घटना पितृ पक्ष में कौवों को भोजन कराने की परंपरा का आधार है. कौआ भी यम पक्षी है. सदियों पुरानी कहावत है, कौआ यदि घर की मुंडेर पर बैठ जाए तो मान लिया जाता है कि मेहमान आने वाला है, वहीं कौआ किसी के सिर पर बैठ जाए तो उसे बहुत अशुभ माना जाता है.
मनुष्य के लिए सबसे वफादार कुत्ता है. कुत्ता भैरव जी की सवारी के कारण यम पशु है, वह भी काल का प्रतीक है. जरा सी आहट होने और अनहोनी की आशंका होते ही कुत्ता सोते हुए भी जाग जाता है. कुत्ते को भोजनांश देने का अर्थ यह है कि हमारे पितृ जहां भी जिस योनि में हों, सुरक्षित रहें. भारतीय ज्योतिष में जन्मपत्री में केतु की पीड़ा होने पर कुत्ते की देखभाल, सेवा एवं भोजन देने का विधान है इससे अनिष्ट केतु का प्रकोप समाप्त होता है, जीवन में अचानक चमत्कारिक परिवर्तन आते हैं. कुत्ते को पितृ पक्ष में खाना देना बहुत शुभ माना जाता है. उन्हें भोजन देने से पितरों का मार्ग सुरक्षित होता है और अकाल मृत्यु के दोष से मुक्ति मिलती है.
पितृपक्ष एक संस्कृत यौगिक शब्द
मानते हैं कि पितृपक्ष की शुरुआत ऋषि नेमि ने की थी. पितृपक्ष एक संस्कृत यौगिक शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है: ‘पितृ’ (पूर्वज) और ‘पक्ष’ (पखवाड़ा या पक्ष), जिसका अर्थ है “पूर्वजों का पखवाड़ा” या “पैतृक पूर्वजों का पखवाड़ा”. हर वर्ष आश्विन मास की प्रतिपदा से इसका शुभारंभ होता है और यह अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है, कुछ धर्मशास्त्रों में पूर्णिमा के दिन भी श्राद्ध का विधान बताया जाता है इसलिए भाद्रपद की पूर्णिमा को भी श्राद्ध किया जाता है. साल के 365 दिन में से ये 16 दिन पूर्वजों के नाम किए गए है.
महाभारत के युद्ध में जब लाखों लोग मारे गए और उनका कोई नामलेवा तक नहीं बचा तो भीष्म पितामह ने युद्धिष्ठिर को बुलाकर उनका श्राद्ध करने को कहा. भीष्म पितामह ने उन्हें बताया कि गरुड़ पुराण में यह बताया गया है कि ऋषि नेमि अपने पुत्र की असमय मृत्यु से बहुत दुखी थे और उन्होंने अपने पूर्वजों का आह्वान करना शुरू कर दिया था, तब उनके पूर्वजों ने उन्हें आकर बताया कि तुम्हारा पुत्र पितृ देवों के बीच स्थान प्राप्त कर चुका है. आह्वान के दौरान उन्होंने उसे भोजन भी अर्पित किए थे, उस समय से यह आह्वान पितरों को समर्पित माना गया.
गयासुर की कहानी
गयासुर की कहानी भी पिंडदान से जुड़ी है. गयासुर एक विष्णुभक्त असुर था, वह भगवान विष्णु की भक्ति में लीन था. उसकी भक्ति से देवता भयभीत हुए और भगवान विष्णु के पास पहुंचे. भगवान विष्णु देवताओं के साथ उस स्थान पर गए जहां गयासुर तपस्या कर रहा था. भगवान विष्णु ने उससे तपस्या का कारण पूछा तो उसने यह बताया कि सभी देवताओं और स्थानों से पवित्र होने का आशीर्वाद चाहता है. भगवान ने उसे आशीर्वाद दे दिया. आशीर्वाद पाने के बाद गयासुर ने बेजा इस्तेमाल शुरू कर दिया और पापियों को अपने शरीर का स्पर्श करवाकर उन्हें बैकुंठ भेजने लगा. तब यमराज ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश से शिकायत की, जिसके बाद योजना बनाकर गयासुर से उसका शरीर यज्ञ के लिए मांगा गया. गयासुर ने अपने शरीर को पांच कोस तक फैलाकर दक्षिण की ओर मुंह कर लेट गया और उसके शरीर पर यज्ञ हुआ. जिस जगह पर गयासुर लेटा था और यज्ञ हुआ था वह जगह आज बिहार का गया शहर है. जब भगवान विष्णु ने गयासुर के शरीर के टुकड़े किए तो वह विष्णुपद मंदिर में गिरा. गयासुर ने भगवान विष्णु से मृतात्माओं के लिए भी वरदान भी मांगा. इसी वजह से पूर्वजों के उद्धार के लिए गया में पूजा की जाती है. उसे मोझ की प्राप्ति होती है.
पितृ पक्ष में क्यों नहीं करते हैं नए काम?
दरअसल पितृपक्ष में चन्द्रमा धरती के सबसे पास होता है. धरती से उसकी निकटता मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है. कई बार भ्रम की स्थिति पैदा करता है और निर्णय लेने की क्षमता पर असर डालता है. इसलिए ऐसे कार्यों की मनाही ज्योतिष के आधार पर वैसे भी है, जिनमें गंभीर फैसले लेने पड़ते हैं. इसका पितृपक्ष से सीधा कोई संबंध नहीं है. फिर भी चूंकि चंद्रमा से धरती की निकटता का समय ही पितृपक्ष के दौरान ही होता है, इसलिए ऐसी भ्रांति बन गई है कि पितृपक्ष के कारण, नए कार्य शुरू करने की मनाही है.
जहां तक यात्रा न करने को लेकर बात है, तो वह चौमासे के कारण पहले ही वर्जित होती है. यह कोई धार्मिक कारण नहीं है, बल्कि प्राचीन काल में स्थिति के अनुसार बनाई गई एक व्यवस्था थी. विवाह संबंध भी चौमासे के कारण ही नहीं होते हैं. फिर कोई मंगल कार्य इसलिए नहीं किया जाता है क्योंकि मंगल कार्यों में देवताओं का आह्नान किया जाता है, लेकिन इस वक्त वह भी अपने लोकों में नहीं होते हैं. सो रहे होते हैं.
आयुर्वेद भी मानता है कि आषाढ़ से लेकर कार्तिक महीने तक वर्षाकाल के कारण जठराग्नि धीमी पड़ जाती है और पाचनतंत्र कमजोर हो जाता है, इसलिए भोजन भी हल्का और सुपाच्य करने की सलाह दी जाती है और यही वजह है कि पारिवारिक उत्सव, जलसा आदि आयोजन को भी टाला जाता हो.
ज्योतिषियों के मुताबिक, वैसे तो पितृ पक्ष में कोई शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं, परंतु इन दिनों जन्म लेने वाले बच्चे शुभ और बेहद भाग्यशाली होते हैं. पितृ पक्ष में जन्म लेने वाले बच्चों पर पितरों की विशेष कृपा रहती है. मेरा जन्म भी पितृपक्ष में ही हुआ. मान्यता है कि ऐसे बच्चे अपने ही कुल के पूर्वज होते हैं. ये बच्चे परिवार के उत्थान का काम करते हैं. यह बच्चे अपनी उम्र की तुलना में ज्यादा समझदार होते हैं. कहते है कि पितृ पक्ष में जन्मे बच्चों का यश काफी दूर तक फैलता है.
पितृ अशुभ नहीं
आज पितृ विसर्जनी अमावस्या है. पितरों की विदाई का अंतिम दिन. पितृ प्रेरणा के लिए हैं. आशीष के लिए हैं. उदाहरण के लिए हैं. पालन के लिए हैं. पितृ अशुभ नहीं हैं. न पितरों का यह पक्ष. यह पक्ष है पवित्रता का. सरलता और साधारणता का. रुककर पीछे देखने, याद करने, उन्हें समझने और अपने अंदर उनको खोजने का. यह पूरी दुनिया छलों, भयों और स्वांगों से भरी है. इसमें ये पितृ ही तो थे जिनके पास और जिनके साथ हम सुरक्षित थे, संभले हुए थे, सहज थे. इसलिए पितृ न जीवित रहते हुए हमारे लिए नकारात्मक थे और न मृत्यु के बाद. कर्मकांड को पाखंड तक ले जाने के बजाय एक अनुकूल और शुभ, शुद्ध और सरल पक्ष के रूप में हम इस पखवाड़े को देखें और बरतें, यही श्रेयस्कर है.